उस राष्ट्रपति की कहानी, जिसे पूरे परिवार के साथ उन्हीं की सेना ने कत्ल कर दिया
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ये वो दौर था जब पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पाकिस्तान की ज्यादती इस हद तक बढ़ने लगी थी कि सैकड़ों हत्याएं आम बात सी हो गई। महिलाओं और मासूम बच्चों के साथ अत्याचार हो रहा था। तब एक शख्स इन लोगों का मसीहा बना और दुनिया के नक्शे में बांग्लादेश का अस्तित्व आया। वे बांग्लादेश के राष्ट्रपिता बने। यहां तक की बांग्लादेश के राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री बने। लेकिन एक दिन ऐसा क्या हो गया कि उन्हीं की सेना ने ही राष्ट्रपति होते हुए भी उन्हें पूरे परिवार के साथ बेरहमी से कत्ल कर दिया। विदेश में होने की वजह से जो बेटी बच गईं वो इस घटना के 21 बाद बांग्लादेश की पीएम बनीं। आज कहानी शेख मुजीबुर्रहमान की।

कहानी शुरू होती है। साल 1947 से, भारत अंग्रेजों के बेड़ियों से आजाद तो हो गया लेकिन भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो गया। वहीं पाकिस्तान के दो हिस्से थे पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान।

बीबीसी की खबर के मुताबिक बांग्लादेश के साहित्यकार अब्दुल गफ्फार चौधरी बताते है कि

‘साल 1948 में पाकिस्तान की सरकार ने घोषणा की कि पूरे पाकिस्तान की भाषा उर्दू होगी। लेकिन पाकिस्तान के किसी भी सूबे की भाषा उर्दू नहीं थी। सिंध में सिंधी, पंजाब में पंजाबी, नॉर्थवेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में पश्तो और पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली भाषा बोली जाती थी। पाकिस्तान के 56 फीसदी लोग बंगाली थे, जो एक बहुसंख्यक समुदाय था। पूर्वी पाकिस्तानी के लोग उर्दू समझ तो सकते थे लेकिन बोल नहीं सकते। इसलिए एक डर था कि पाकिस्तान बंगाली भाषा दबाना चाहता था क्योंकि वो पूर्व पाकिस्तान को उपनिवेश बनाना चाहता था।’

ऐसे ही कई तरह के और भी मतभेदों के चलते पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान पर अत्याचार करना शुरू कर दिया और ये साल दर साल बढ़ता ही गया।

इन्हीं सबके बीच सैकड़ों हत्याएं की गईं। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के साथ भेदभाव हो रहा था। तब इन लोगों की आवाज बने जिसका नाम था - शेख मुजीबुर्रहमान।

कौन थे शेख मुजीबुर्रहमान।

-भारत में जब अंग्रेजों की हुकूमत थी तब बंगाल राज्य के फरीदपुर जिले के गोपालगंज वो जगह जो अब बांग्लादेश में आती है। यही पर 17 मार्च, साल 1920 को शेख मुजीबुर्रहमान पैदा हुए।

-साल 1942 तक शुरुआती पढ़ाई गोपालगंज में ही हुई, उसके बाद कोलकाता के इस्लामिया कॉलेज में एडमिशन लिया और यहीं से वे पॉलिटिक्स में आए।

-साल 1943 में वे बंगाल मुस्लिम लीग के सदस्य बने, इसी दौरान वो पाकिस्तान आंदोलन से जुड़े, धीरे-धीरे उनका कद बढ़ता गया।

-साल 1948 में आजादी के बाद जब उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा बनाने का ऐलान किया गया तब इसका विरोध किया और मुस्लिम लीग को छोड़ दिया।

-साल 1949 में हुसैन सईद, मौलाना भाषानी और यार मोहम्मद खान जैसे बड़े कद के लोगों के साथ मिलकर अपनी अलग पार्टी बना ली जिसका नाम था-अवामी लीग पार्टी।

-साल 1953 अवामी लीग के महासचिव बने, 10 साल बाद साल 1963 में अवामी लीग के अध्यक्ष बनाए गए। साल 1966 में जनरल अयूब के खिलाफ आंदोलन में हिस्सा लिया।

-जब पश्चिमी पाकिस्तान का अत्याचार बढ़ा तो साल 1969 को पूर्वी पाकिस्तान को अलग देश बनाने के लिए आंदोलन शुरू किया। बांग्लादेश नाम देने का ऐलान भी कर दिया।

साल 1970 में पाकिस्तान के पहले डेमोक्रेटिक इलेक्शन में उनकी पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की। मेजॉरिटी के बाद भी पाकिस्तान में उनकी सरकार नहीं बन पाई। इस चीज से नाराज आबादी के एक बड़े हिस्से ने असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया। देशभर में प्रोटेस्ट होने लगे।

07 मार्च, साल 1971 वो दिन जब ढाका के रेसकोर्स मैदान में करीब 10 लाख लोगों का हुजूम उमड़ा था।

बीबीसी की खबर के मुताबिक लोगों के हाथों में डंडे और लाठियां थीं। सभी पाकिस्तान से आजादी के लिए नारे लगा रहे थे। सरकार के आदेश की दरकिनार करते हुए ढाका का रेडियो स्टेशन शेख मुजीबुर्रहमान के भाषण को प्रसारित करने की अंतिम तैयारी कर रहा था। शेख मुजीबुर्रहमान ने जब बोलना शुरू किया तो लोग जोश से भर गए। वो भाषण नहीं एक ललकार थी पाकिस्तान के खिलाफ।

पूर्वी पाकिस्तान में हो रहे प्रोटेस्ट के जवाब में पाकिस्तानी आर्मी ने 'ऑपरेशन सर्चलाइट' शुरू किया। 26 मार्च, साल 1970 को शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार किसी गुमनाम जगह में कैद कर दिया और अवामी लीग पार्टी को बैन कर दिया।

देश में कत्ल-ए-आम मच गया। मुजीब की गैरमौजूदगी में लाखों लोगों ने गुरिल्ला आर्मी 'मुक्ति वाहिनी' जॉइन कर ली। उन्होंने इंडियन आर्मी की मदद से पाकिस्तानी आर्मी को हरा दिया। 16 दिसंबर साल 1971 को पाकिस्तान की सेना के भारत के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और ऐसे एक नए देश का जन्म हुआ जो बांग्लादेश कहलाया। 

बांग्लादेश को आजादी मिलने के बाद पाकिस्तान पर इंटरनेशनल प्रेशर काफी बढ़ गया और इसकी वजह से उन्हें शेख मुजीबुर्रहमान को छोड़ना पड़ा।

करीब पाकिस्तान में करीब नौ महीने जेल में रहने के बाद जब 22 दिसंबर साल 1971 को पाकिस्तान की जेल से रिहा हुए और कुछ दिन तक लंदन में रहे।

लंदन से ढाका जाने से पहले वे भारत आए। तारीख थी 9 जनवरी साल 1972

बीबीसी खबर के मुताबिक बांग्लादेश के पूर्व विदेश मंत्री डॉक्टर कमाल हुसैन लिखते है कि

‘भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति वीवी गिरि, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, उनका पूरा मंत्रिमंडल, सेना के तीनों अंगों के प्रमुख और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर राय, शेख मुजीबुर्रहमान के स्वागत में दिल्ली के एयरपोर्ट पर मौजूद थे। सब की आंखे नम थीं। ऐसा लग रहा था कि किसी परिवार का पुनर्मिलन हो रहा हो।’

दिल्ली में दो घंटे रुकने के बाद जब शेख जब ढाका पहुंचे तो करीब लाखों लोग एयरपोर्ट में खड़े थे। 12 जनवरी साल 1972 को प्रधानमंत्री बने शेख मुजीबुर्रहमान ने सत्ता संभाली और युद्ध से तहस नहस बांग्लादेश के पुनर्निर्माण में लग गए। लेकिन साल 1975 आते-आते चीजें उनके हाथ से निकलने लगीं

भ्रष्टाचार बढ़ने लगा और भाई-भतीजावाद को शह मिलने लगी। बांग्लादेश के लोगों के साथ सेना में भी असंतोष बढ़ने लगा।

25 जनवरी साल 1975 को शेख मुजीबुर्रहमान देश के राष्ट्रपति बनाए गए।

15 अगस्त, 1975 की वो सुबह जब मौत का तांडव हुआ।

बीबीसी खबर के मुताबिक, सेना के कुछ अफसरों ने शेख मुजीबुर्रहमान के 32 धनमंडी स्थित आवास पर हमला बोल दिया। गोलियों की आवाज सुनकर शेख मुजीबुर्रहमान नीचे की तरफ दौड़ने के लिए सीढ़ियों से उतर ही रहे थे कि उन पर गोली चलाई गई। पहले बेगम मुजीब को गोली मारी गई। फिर बारी आई उनके दूसरे बेटे जमाल की। उनकी दोनों बहुओं को भी नहीं बख्शा गया। और यहां तक कि उनके सबसे छोटे बेटे रसेल मुजीब को भी मौत के घाट उतार दिया गया। इस दौरान कुल 18 लोगों की हत्या की गई। उनकी दोनों बेटियां शेख हसीना और शेख रिहाना इसलिए बच गईं क्योंकि वे जर्मनी में थी।

16 अगस्त की सुबह सैनिकों ने सारे शवों को इकट्ठा किया और शेख मुजीबुर्रहमान को छोड़ कर बाकी सरे शवों को एक साथ बेनानी कब्रिस्तान में एक बड़े गड्ढे में दफना दिया गया। और मुजीबुर्रहमान के शव को हेलीकॉप्टर से उनके गांव टांगीपारा ले जाया गया जहां उनके पिता की कब्र के बगल में दफना दिया गया।  

विडंबना ही कही जाएगी कि जिस दिन उनको दफनाया जा रहा था तब बांग्लादेश के राष्ट्रपिता के लिए आंसू बहाने वाले बहुत कम लोग थे। ऐसा कहा जाता है कि उस दिन मूसलाधार बारिश हुई जो पूरे दिन होती रही उस बारिश की बूंदों को से समझा जा सकता है कि जिस तरह से उनको मारा गया शायद प्रकृति उसे बर्दाश्त नहीं कर पाई।

उस दौरान भारत की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने मुजीबुर्रहमान के बेटी शेख हसीना को शरण दी और वे छह साल तक भारत में रहीं। साल 1981 में जब हालात थोड़े सुधरे तो हसीना बांग्लादेश वापस गईं और पिता की पार्टी की बागडोर संभाली और 23 जून साल 1996 में बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनी।   

मुजीबुर्रहमान की हत्या में शामिल रहे अब्दुल माजिद को साल 1998 में बांग्लादेश की कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई। साल 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को बरकरार रखा और 13 अप्रैल साल 2020 को ढाका की सेंट्रल जेल में माजिद को फांसी दे दी गई।

मशहूर फिल्म मेकर श्याम बेनेगल ने मुजीबमुर्रहमान के जीवन पर फिल्म बनाई है। जिसे साल 2021 में इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। इस फिल्म को भारत और बांग्लादेश ने मिलकर बनाया है। इसमें शेख मुजीबउर्रहमान का किरदार बांग्लादेश के एक्टर अरिफिन शुवू ने निभाया है। पहले इस फिल्म का नाम 'बंगबंधु' था। लेकिन बांग्लादेश की पीएम शेख हसीना ने फिल्म का नाम 'मुजीब' रखने के लिए कहा। इनका कहना था शेख मुजीबुर्रहमान को उनके आखिरी छह सालों में 'बंगबंधु' नाम से जाना गया। जबकि ये फिल्म उनकी पूरी लाइफ पर बेस्ड है।

 

सुनता सब की हूं लेकिन दिल से लिखता हूं, मेरे विचार व्यक्तिगत हैं।

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