साल 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान के बंटवारे ने न सिर्फ समुदायों को बल्कि परिवारों का भी बांट दिया था। आज भी उस बंटवारे का दर्द बहुत से लोगों के दिलों में है। इन लोगों के दर्द को ध्यान में रखकर ही करतारपुर कॉरिडोर बना था, इस कॉरिडोर ने पिछले कुछ सालों में बहुत से परिवारों को मिलाया है। कुछ उसी तरह 1947 में बिछड़े दो भाईयों का परिवार जब एक-दूसरे से करतारपुर साहिब में मिला तो माहौल इमोशनल हो गया। इस दौरान दोनों परिवारों ने एक-दूसरे के लिए गाने गाए और फूल बरसाए।
ये कहानी है गुरदेव सिंह और दया सिंह की, जो बंटवारे से पहले हरियाणा के महेंद्रगढ़ जिले के गोमला गांव में रहते थे। जब इनके पिता का देहांत हुआ तो दोनों अपने पिता के एक दोस्त करीम बख्श के घर रहने लगे। इन दोनों भाइयों में गुरदेव सिंह बड़े थे और दया सिंह छोटे हैं। जब देश का बंटवारा हुआ तो करीम बख्श बड़े भाई गुरदेव सिंह को अपने साथ पाकिस्तान ले गए और छोटे भाई दया सिंह अपने मामा के साथ भारत में ही रह गए।
पाकिस्तान पहुंच कर गुरदेव सिंह करीम बख्श के साथ लाहौर से लगभग 200 किमी दूर पंजाब प्रांत के झांग जिले में जाकर बस गए। यहां रहते हुए गुरदेव सिंह, गुलाम मोहम्मद हो गए। फिर वहीं शादी की, जब बेटा हुआ तो उन्होंने उसका नाम मोहम्मद शरीफ रखा। हालांकि, कुछ साल पहले गुरदेव सिंह इस दुनिया से चल बसे और छोटे भाई से मिलने का सपना अधूरा ही रह गया।
गुरदेव सिंह के बेटे मोहम्मद शरीफ का कहना है कि कई सालों तक मेरे पिता ने भारत सरकार को चिट्ठियां लिखीं और भाई दया सिंह को ढूंढने की अपील की। 6 महीने पहले सोशल मीडिया के जरिए हम अपने चाचा दया सिंह को ढूंढने में कामयाब हो पाए। इसके बाद दोनों परिवारों ने करतारपुर साहिब पर मिलने का निर्णय किया। हमने भारत सरकार से आग्रह किया कि मेरे परिवार के सदस्यों को यहां वीजा दिया जाए ताकि वे हरियाणा में अपने पुश्तैनी घर जा सकें।
बता दें कि करतारपुर कॉरिडोर एक वीजा-मुक्त धार्मिक जगह है, जो पाकिस्तान में गुरुद्वारा श्री दरबार साहिब और भारत में गुरुद्वारा श्री डेरा बाबा नानक को जोड़ता है। इस गलियारे से भारतीय श्रद्धालु बिना वीजा के करतारपुर साहिब गुरुद्वारे के दर्शन कर सकते हैं।
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