आज से 110 साल पहले 43 साल के एक व्यक्ति ने अपनी आधी से ज्यादा संपत्ति बेची, पत्नी के गहने गिरवी रखे, 30 हजार रुपये का लोन लेकर लंदन से कैमरा लाए और भारत की पहली फिल्म बनाकर इतिहास रच दिया। फिल्म के वे डायरेक्टर भी थे और प्रोड्यूसर भी, उन्होंने खुद ही कैमरा चलाया और खुद ही एडिटिंग भी की। इस फिल्म में उनके बच्चों ने एक्टिंग की और पत्नी ने कॉस्ट्यूम को डिजाइन किया। आज कहानी धुंडिराज गोविंद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के की, जिनके नाम का अवार्ड पाकर बॉलीवुड का हर कलाकार अपने आपको आनर्ड महसूस करते है।
ये वो दौर था जब लोगों में ऐसा मानना था 'कैमरा अगर को फोटो खींचता था तो इंसान के अंदर से उसकी आत्मा को खींच लेता है’। इसलिए दादा साहब फाल्के का फोटोग्राफी का काम नहीं चल रहा था।
साल 1970 में महाराष्ट्र में पैदा हुए दादा साहेब ने एक दिन एक फिल्म देखी, जिसका नाम था - लाइफ ऑफ क्राइस्ट। इस फिल्म को देखने के बाद उन्होंने सोचा कि इंडिया में भी माइथोलॉजिकल स्टोरी को फिल्मों के जरिए दिखाया जा सकता है। फिर क्या था दादा साहेब पहुंच गए लंदन और और वहां से फिल्म बनाने की तकनीक सीख आए। लेकिन फिल्म बनाना इतना आसान नहीं थी। पैसे नहीं थी तो पत्नी सरस्वती बाई ने अपने गहने गिरवी रखकर पैसे जुटाए। फिर फिल्म के लिए हीरो तो मिल गए हीरोइन नहीं मिल रही थी।
दादा साहेब फाल्के के नाती चंद्रशेखर पुसालकर ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में बताया था कि
'दादा साहेब फाल्के मुंबई के रेड लाइट एरिया में भी गए। वहां पर भी औरतों ने ज्यादा फीस की डिमांड की। एक दिन वो होटल में चाय पी रहे थे तो वहां काम करने वाले एक गोरे-पतले सालुंके नाम के लड़के को देखकर उन्होंने सोचा कि इसे लड़की का रोल दिया जा सकता है। फिर उसने तारामती का रोल किया'
फिर दादर में छह महीने की शूटिंग के बाद 21 अप्रैल 1913 का वो दिन जब भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ ओलम्पिया सिनेमा हॉल में रिलीज हुई। ये फिल्म जबरदस्त हिट रही और दादा साहेब रातों-रात मशहूर हो गए।
पहली मूक फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" के बाद दादा साहब ने दो और फिल्में "भस्मासुर मोहिनी" और "सावित्री" बनाई। साल 1915 में अपनी इन तीन फिल्मों के साथ दादा साहब लंदन गए जहां इस काम की बेहद तारीफ हुई। कोल्हापुर नरेश के कहने पर साल 1938 को दादा साहब ने अपनी फर्स्ट और लास्ट बोलती फिल्म "गंगावतरण" बनाई। साल दर साल दादा साहेब ने करीब 95 फिल्में और 26 शॉर्ट फिल्में बनाई।
चंद्रशेखर पुसालकर बतातें है कि ‘‘अंतिम सालों में दादा साहेब अल्जाइमर से जूझ रहे थे। लेकिन उनके बेटे प्रभाकर ने उनसे कहा कि चलिए नई तकनीक से कोई नई फिल्म बनाते हैं। उस वक्त ब्रिटिश राज था और फिल्म प्रोडक्शन के लिए लाइसेंस लेना पड़ता था। दादा साहेब ने लाइसेंस के लिए चिट्ठी लिखी। 14 फरवरी साल 1944 को जवाब आया कि आपको फिल्म बनाने की इजाजत नहीं मिल सकती। उस दिन उन्हें ऐसा सदमा लगा कि दो दिन के बाद वो चल बसे।’
यानी 16 फरवरी साल 1944 को दादा साहेब फाल्के ने दुनिया से अलविदा कह दिया। जब 'फादर ऑफ इंडियन सिनेमा' दादा साहेब की मौत हुई तो उनकी अंतिम यात्रा में शामिल होने के लिए भी चंद लोग ही थे और अखबारों में भी खबर चंद लाइनों में सिमटी गई थी।
उनकी मौत के 25 साल बाद साल 1969 को इंडियन गवर्मेंट ने उनके सम्मान में 'दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड' की घोषणा की। फाल्के की लाइफ और उनकी स्ट्रगल पर मराठी में फिल्म 'हरिश्चंद्राची फॅक्टरी' साल 2001 में रिलीज हुई जिसे देश ही नहीं विदेशों भी में सराहा गया। दादा साहेब के परिवार ने काफी प्रयास किया कि उनको भारत रत्न दिया जाए पर कुछ नहीं हुआ। आज के समय में दादा साहेब फाल्के के परिवार का कोई भी सदस्य बॉलीवुड में काम नहीं करता। उनके परिवार को मलाल है दादा साहेब को वो सम्मान नहीं मिला जिनके वो हकदार हैं।
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