बच्चे को जन्म देना एक महिला के लिए कुदरत का तोहफा माना जाता है और वर्किंग वुमेन के लिए मैटरनिटी लीव को एक वरदान। मैटरनिटी लीव को इंडिया में प्रोग्रेसिव डिजीसन के तौर पर देखा जाता है। लेकिन मैटरनिटी लीव ही महिलाओं के लिए अपने कैरियर में गिवअप की वजह बन जाती है। शायद इसलिए ही कई बार वर्किंग वूमन फैमिली प्लॉनिंग को कैरियर में रुकावट के तौर पर भी देखती हैं। मैटरनिटी लीव के प्रावधान के बाद भी ऐसा क्यों है, रिपोर्ट्स और सर्वे इस बारे में खुलकर बताते हैं।
सबसे पहले मैटरनिटी लीव के बारे में जान लेते हैं। 'मातृत्व लाभ संशोधन अधिनियम 2017' के मुताबिक, अगर कोई महिला किसी सरकारी या प्राइवेट संस्था में 80 दिन तक काम कर लेती है, तो उसे प्रेग्नेंसी में 26 वीक की पेड लीव लेने का अधिकार होता है। इसे मैटरनिटी लीव कहा जाता हैं। इसे मैटरनिटी लीव कहा जाता हैं।
मैटरनिटी बिल पर साल 2019 में टीमलीज कंपनी ने मैटरनिटी लीव के इंपेक्ट पर सर्वे किया और बताया कि 10 से 18 लाख वर्किंग वूमन इस कानून के आने के बाद अपनी नौकरी खो सकती हैं।वहीं,‘लोकलसर्किल’ नाम की कंपनी की मानें तो मैटरनिटी लीव आने के बाद छोटी और मीडियम कंपनियों में महिलाओं ने करीब 50% नौकरियां खोईं और स्टार्टअप्स में महिलाओं की कम हायरिंग हुई। जिसकी बड़ी वजह मैटरनिटी बिल को माना गया।
मैटरनिटी लीव..जिसे एक सहूलियत के तौर पर देखा जाता है लेकिन ये सहूलियत महिलाओं की प्रोफेशनल कैरियर के खत्म होने की वजह बन जाती है। फिर 2018 के एक सर्वे की बात करने जाएं तो सामने आया कि बच्चे को जन्म देने के बाद 73% महिलाएं अपनी नौकरी छोड़ देती हैं और जो महिलाएं नौकरी पर वापस भी आती हैं उसमें 48% महिलाएं 4 महीने के अंदर नौकरी छोड़ देती हैं।
शायद बच्चे की पूरी जिम्मेदारी महिला की ही समझना, मैटरनिटी लीव का खर्च पूरी तरह से संस्था पर होना भी इस सहुलियत के नेगेटिव इम्पेक्ट की वजह है। मां और पिता दोनों पर बच्चे की पूरी जिम्मेदारी होनी चाहिए, इस पक्ष को सामने रखते हुए मैटरनिटी लीव के कुछ आलोचकों का मानना था कि इससे महिलाओं को जॉब न देने का एक बहाना और तैयार कर दिया गया है, क्योंकि मैटरनिटी लॉ में फीमेल्स को 26 हफ्ते की छुट्टी मिलती है और मेल्स को कम-से-कम 2 दिन और ज्यादा-से-ज्यादा 2 हफ्ते की ही छुट्टी दी जाती है।
महिलाओं के कैरियर में कम से कम 6 महीने का ब्रेक लगता है, लेकिन पिता तुरंत काम पर लौट सकते है। और साथ ऐसा भी नहीं है कि बच्चे के जन्म के बाद महिला तुरंत काम पर लौट सकती है। क्योंकि महिला की फिजिकल फिटनेस और एक नवजात बच्चे का केयर पर पूरा अधिकार है।
लेकिन प्रोफेशनल एंगल से असली दिक्कतें वहीं से शुरु होती हैं। कई बार वर्किंग वूमन को आगे मौके नहीं मिलते, प्रमोशन रुक जातें है और इसी के साथ मेल कलींग्स के काफी आगे निकल जाने से सैलेरी गैप भी काफी बढ़ जाता है। इसी के साथ जो पुरुष बच्चे को प्रायरिटी देते हैं, उन्हें भी जज किया जाता है।
‘इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन ( ILO)’ 2014 के 'मैटरनिटी लॉ और प्रैक्टिस रिपोर्ट' की मानें, तो दुनिया के 58% देश सोशल सिक्योरिटी के जरिए मैटरनिटी लीव को फंड करते है और 16% देशों एक ‘मिला-जुला मॉडल’ यानी कुछ फंड सरकार की ओर से और कुछ फंड कपंनी की ओर से मिलाकर बनाया है, जो इसे फंड करती है।
वैसे, उत्तरी यूरोप के कई देशों में जेंडर न्यूट्रल लीव मॉडल है जिसमें मेल-फीमेल दोनों ही बराबर पैरेटिंग लीव दी जाती है और वो बराबरी की जिम्मेदारी निभाते हैं। वहीं, कंपनियां महिलाओं की मदद के लिए फंड और इंश्योरेंस पॉलिसी बना सकती हैं। इसके बढ़ावे के लिए गवर्नमेंट भी स्मॉल या मीडियम संस्था में मदद करके प्रोत्साहन देती है।
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